संविधान में जिस भावना से केवल १० वर्षों के लिए आरक्षण दलितों के लिए लागू किया था ६० वर्षों में वह उद्देश्य पूरा हो गया है. आज दलित आर्थिक व शिक्षा की दृष्टि से संपन्न है. यदि आरक्षण इसी प्रकार बढाया जाता रहा तो देश विभिन्न जातियों, समुदायों व वर्गों में विभाजित तो हो ही गया है कहीं द्वेष व वैमनस्य के गर्त में न चला जाए. अयोग्य को आरक्षण देने से योग्य नहीं बनाया जा सकता बल्कि आरक्षण योग्य व्यक्ति को आगे जाने से रोकता है. संविधान प्रदत्त समानता के अधिकार के तहत कोई छोटा-बड़ा नहीं.
समानता का अधिकार
फिर क्यों :
[1] योग्यता के आधार पर सवर्ण व्यक्ति को मिल सकने वाली नौकरी छीनकर आरक्षित जाति के अयोग्य व्यक्ति को दे दी जाती है.
[2] सरकारी या अर्द्ध-सरकारी क्षेत्र में वरिष्ठ सवर्ण कर्मचारी की तुलना में आरक्षित कनिष्ठ कर्मचारी को पदोन्नति देकर सीनियर कर दिया जाता है.
[3] सवर्ण योग्य युवक बेरोजगार घूमता है जबकि अयोग्य आरक्षित जाति का युवक तुरंत नौकरी पा जाता है.
[4] सरकारी स्तर पर प्राप्त होने वाली एजेंसी या तार्किक सहायता जाति विशेष के आधार पर दी जाती है न की योग्यता और आवश्यकता के आधार पर.
[5] नौकरी के लिए आवेदन करने पर सवर्णों से आवेदन शुल्क के रूप में भारी राशि ली जाती है जबकि आरक्षितों से कोई राशि नहीं ली जाति, यदि ली भी जाती है तो न्यूनतम, भले ही वह आई.ए.एस. या आई.पी. एस. का ही बेटा-बेटी क्यों न हो.
[6] साक्षात्कार में जाने के लिए सवर्ण युवक अपना मार्ग व्यय देकर जाता है जबकि आरक्षित युवक की रेल विभाग निःशुल्क यात्रा व्यवस्था करता है या उसे तत्संबंधित विभाग से मार्ग-व्यय मिलता है.
[7] चुनाव क्षेत्र को आरक्षित कर सवर्गों के समस्त राजनैतिक अधिकार छीन लिए गए हैं. इन क्षेत्रों से ग्राम पंचायत से लेकर एम.एल.ए., एम.पी. तक का चुनाव कोई सवर्ण नहीं लड़ पाता.
— ये सब संविधान प्रदत्त मानव अधिकारों का हनन नहीं तो और क्या है? समानता का अधिकार मात्र नारा भर रह गया है.
...... अन्य मौलिक अधिकारों पर बाद में चर्चा करते हैं.