[मेरे अभिन्न मित्र लाखन सिंह भदौरिया की कविता जो मुझे हमेशा संबल देती है. ]
खुली चुनौती देता, हमको बढ़ता हुआ अन्धेरा,
पल-पल दूर जा रहा हमसे उगता हुआ सवेरा,
निशा नाचती दसों दिशाएँ, उडी तिमिर की धूल,
अपना दीप जलाना होगा, झंझा के प्रतिकूल.
आत्मा की चिर दीप्त वर्तिका को थोड़ा उकसा दो,
माँगो नहीं ज्योति जगती से, लौ बन कर मुस्का दो,
जगमग जगती के उपवन में खिलें ज्योति के फूल,
माथे से फिर विश्व लगाए, इस धरती की धूल.
अमा, क्षमा माँगे, भूतल से भागे सघन अन्धेरा,
अवनी का आलोक स्तब्ध बन जाये भारत मेरा,
आर्य संस्कृति के परवाने, आओ सीना ताने,
दीप बुझाने नहीं ज्वलित पंखों से दीप जलाने.
तब समझूँगा तुम जलने की कितनी आग लिए हो.
और चमकते प्राणों में कितना अनुराग लिए हो.
['ज्योति के फूल' लाखन सिंह भदौरिया की एक काव्य-कृति है, उनकी कविता साहित्य की अमूल्य निधि है. उनकी कविता मुझे सदा प्रेरित करती है.]